हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे साफ हो गए हैं. भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल गया है. उसे करीब 40 फीसदी वोट के साथ 48 सीटें मिल गई हैं. एग्जिट पोल्स के हिसाब से देखें तो ये नतीजे हैरान करने वाले हैं. एग्जिट पोल्स में भाजपा के लिए 30 से भी कम सीटों का अनुमान लगाया गया था. एग्जिट पोल करने वालों ने जिस कांग्रेस को 44 से 65 सीटें दी थीं, वह 40 तक भी नहीं पहुंच पाई. भाजपा के लगभग बराबर वोट लाकर भी सीटों के मामले में कांग्रेस 37 पर ही अटक गई. खास बात यह थी कि इस बार लगभग सभी एग्जिट पोल्स की राय (मैं नतीजे नहीं कह रहा) यही थी कि हरियाणा में भाजपा की विदाई और कांग्रेस की वापसी हो रही है.
लेकिन, ईवीएम से निकले नतीजों से एग्जिट पोल करने वालों की परतें उघड़ गई हैं. एक बार फिर साबित हुआ कि एग्जिट पोल के नाम पर तमाशा किया जाता है. वैसे, कांग्रेस का आरोप है कि चुनाव आयोग ने दबाव में काम किया है, लेकिन इस आरोप का कोई ठोस आधार नहीं है. ठोस बात यही है कि एग्जिट पोल्स गलत साबित हुए हैं.
एग्जिट पोल का मतलब है वोट देने के तुरंत बाद मतदाता की राजनीतिक पसंद जान कर उस जानकारी के विश्लेषण के आधार पर नतीजा निकालना. सीधा कहें तो वोट देने के बाद तुरंत मतदाताओं से यह जानना कि उसने किस पार्टी को वोट किया? उनके जवाब के आधार पर आंकलन करना कि वास्तविक नतीजे किस पार्टी के पक्ष में जा सकते हैं.
एग्जिट पोल्स एक वैज्ञानिक प्रक्रिया
एग्जिट पोल्स एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया को सही तरीके से पूरा करने के लिए काफी पैसे, समय, संसाधन और नेटवर्क की जरूरत होती है. लेकिन, यहां हर चुनाव में मूल रूप से टीवी चैनलों के लिए सर्वे किए जाते हैं. और ये सर्वे करने वाली ज्यादातर एजेंसियों के पास जरूरत से बहुत कम संसाधन और नेटवर्क है. बुनियादी ढांचे से जुड़ी इस समस्या के अलावा भी कई कारण हैं, जिनकी वजह से एग्जिट पोल गलत साबित होते हैं. हालांकि, ये कारण भी कहीं न कहीं बुनियादी ढांचे की कमी से ही जुड़ी है.
सीधे तौर पर देखा जाए तो अगर सवाल सही तरीके से व जरूरी संख्या में चुने गए मतदाताओं से पूछा जाए और जवाब सही मिले तो वैज्ञानिक तरीके से उसका सही विश्लेषण कर नतीजों का सही अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. खास कर, जब इस काम में विशेषज्ञ और सालों लंबा अनुभव होने का दावा करने वाली एजेंसियां लगी हों.
फिर एग्जिट पोल्स करने वाले बार-बार गलत क्यों हो जाते हैं? विशेषज्ञ बताते हैं कि एग्जिट पोल के नतीजे कई बातों पर निर्भर करते हैं. जैसे: सही सैंपलिंग नहीं लेना, सही तरीके से सवाल नहीं पूछना, सही जवाब नहीं मिलना, गलत वेटेज देना आदि.
सैंपल साइज: मतलब कितने लोगों से सवाल पूछा जाए. सैंपल साइज एक निश्चित अनुपात में होना जरूरी है. सौ करोड़ की आबादी में 20000 लोगों का सर्वे कर भी ठोस अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन इन लोगों का सही प्रतिनिधित्व होना जरूरी है. मतलब अलग-अलग चुनावी मूड वालों का प्रतिनिधित्व नहीं रहा तो परिणाम सही नहीं आएंगे. उदाहरण के लिए, अगर किसी एक पार्टी के गढ़ समझे जाने वाले मतदान केंद्र के बाहर ही बड़ी संख्या में लोगों की राय ले ली जाय और दूसरी पार्टी के गढ़ को छोड़ दिया जाए तो परिणाम गलत आएंगे ही.
सैंपल सेलेक्शन: मतलब जिन लोगों से सवाल पूछा जाए, उनका चयन कैसे हो. इस बारे में ऊपर चर्चा की गई. रैंडम सैंपल चुनना अच्छा है, ताकि जवाब का झुकाव किसी एक पक्ष की ओर होने की आशंका कम की जा सके. सर्वे करने का तरीका: सवाल कैसे पूछा गया, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. आमने-सामने बात कर पूछा गया या फोन आदि के जरिए, उसके सामने किस तरह सवाल रखा गया…आदि बातों का भी फर्क पड़ता है. किसको वोट दिया? इस तरह के सीधे सवाल का सही जवाब देना कई वोटर्स पसंद नहीं करते.
आबादी के हिसाब से सैंपल को वेटेज कितना सटीक दिया गया है. इसका मतलब हुआ कि मतदाताओं को जितने वर्ग में बांट कर देखते हैं, उन वर्गों के अनुपात में ही वे सैंपल में भी शामिल हों. जैसे- युवा, बुजुर्ग, महिला आदि की संख्या और उनकी सैंपल संख्या का अनुपात बेमेल नहीं हो.
प्रॉसेस क्या
ये तो हुई सर्वे कैसे करते हैं. अब सर्वे करने के बाद का प्रॉसेस क्या है, उसकी बात करते हैं. सैंपल में शामिल वोटर्स से आए जवाबों का विश्लेषण करने में भी कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है. उदाहरण के लिए, प्रणय रॉय ने दोराब आर. सुपारीवाला के साथ मिल कर लिखी गई अपनी किताब ‘वर्डिक्ट’ में बताया है कि वोट शेयर को सीट शेयर में बदलते वक्त उस खास राज्य या क्षेत्र का राजनीतिक गणित भी ध्यान में रखने की जरूरत है.
इसी तरह राय ने एक उदाहरण देकर बताया है कि अगर किसी राज्य के विधानसभा चुनाव में किसी पार्टी की जीत हुई हो और कुछ महीने बाद ही वहां लोकसभा चुनाव हो रहा हो तो उस पार्टी को ‘हनीमून इफेक्ट’ का फायदा मिल सकता है. ऐसी स्थिति में वहां पर पार्टियों के स्विंग का हिसाब निकालने के लिए विधानसभा चुनाव को बेस बनाना चाहिए, न कि पिछले लोकसभा चुनाव को.
डेविड डब्ल्यू मूर ने भी 2008 में लिखी अपनी किताब ‘द ओपिनियन मेकर्स’ में यही बताया है कि एग्ज़िट पोल अक्सर गलत इसीलिए साबित होते हैं क्योंकि यह पूरी तरह पक्षपात रहित नहीं रह पाते. कई बार सवाल सही तरीके से नहीं पूछना और मीडिया द्वारा बनाए गए नैरेटिव के प्रभाव में आ जाने से भी ये गलत साबित हो जाते हैं.
Tags: Assembly elections, Exit poll
FIRST PUBLISHED : October 8, 2024, 22:25 IST