सोनपुर: बिहार के सोनपुर में हर साल कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होने वाला मेला, जिसे एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला कहा जाता है, अब अपनी परंपरागत पहचान खोता जा रहा है. हरिहर क्षेत्र मेला या स्थानीय भाषा में “छत्तर मेला” के नाम से प्रसिद्ध यह आयोजन अब मुख्य रूप से थियेटर और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए जाना जाता है.
मेला का ऐतिहासिक महत्व
यह मेला राजधानी पटना से 15 किलोमीटर और हाजीपुर से 3 किलोमीटर की दूरी पर गंडक नदी के तट पर लगता है. कभी यह मेला अपनी पशु-पक्षियों की खरीद-बिक्री के लिए प्रसिद्ध था, जहां देशभर से व्यापारी और किसान बड़ी संख्या में आते थे. खासकर हाथी, गाय और बैल जैसे पशु इस मेले की शोभा हुआ करते थे.
पशु व्यापार पर प्रतिबंध और मेले का बदलता स्वरूप
2003 में लागू वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और पशु-पक्षियों की खरीद-बिक्री पर प्रतिबंध ने मेले के पारंपरिक स्वरूप को बदल दिया.
– हाथी बाजार समाप्त: 2003 के बाद से हाथी लाने और उनके व्यापार पर प्रतिबंध लगा. हाथी “दान” की परंपरा शुरू हुई, लेकिन वह भी सफल नहीं रही. अब मेले में हाथी बिल्कुल नहीं आते.
– गाय और बैल की घटती संख्या: पहले मेले में 50,000 से अधिक बैल और गाय आते थे, लेकिन अब इनकी संख्या महज कुछ इकाइयों में सिमट गई है.
– भैंस बाजार बंद: 2007 में एक आंदोलन के बाद भैंसों को दूसरे राज्यों में भेजने पर रोक लगा दी गई. इसके बाद भैंस बाजार भी पूरी तरह खत्म हो गया.
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र मैनपुरी बताते हैं कि कृषि में यंत्रीकरण और ट्रैक्टर के उपयोग के कारण बैलों की उपयोगिता खत्म हो गई, जिससे पशु मेले का आकर्षण धीरे-धीरे कम हो गया.
थियेटर ने ली नौटंकी की जगह
पहले मेले में नौटंकी और पारंपरिक नाटक मुख्य आकर्षण हुआ करते थे. “सुल्ताना डाकू” और “लैला-मजनू” जैसे नाटक पद्य शैली में पेश किए जाते थे. बाद में नौटंकी का स्वरूप बदलकर थियेटर में तब्दील हो गया.
– थियेटर बना नया आकर्षण : आज यह मेला मुख्य रूप से थियेटर के लिए जाना जाता है. हाजीपुर और सोनपुर में आने वाले ज्यादातर युवा थियेटर देखने आते हैं.
– रात्रि मनोरंजन की परंपरा : पहले व्यापारियों के मनोरंजन के लिए नाच-गाने का आयोजन होता था. बदलते समय के साथ यह आयोजन थियेटर में बदल गया, जो अब मेले का प्रमुख आकर्षण बन चुका है.
धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का जारी प्रयास
मेले का संचालन पहले राजस्व विभाग करता था, लेकिन 1912 से पर्यटन विभाग ने इसकी जिम्मेदारी संभाल ली.
– धार्मिक रूप से यह मेला हरिहरनाथ मंदिर और गंगा-गंडक संगम पर स्नान के लिए प्रसिद्ध है.
– पर्यटन विभाग ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शुरुआत की, जिसमें देशभर के नामी कलाकार शामिल होते हैं.
पारंपरिक बाजार और खरीदारी में गिरावट
एक समय में लुधियाना और हरियाणा से आने वाली स्वेटर, कंबल, और हाथीदांत की दुकानों से मेला गुलजार रहता था. अब इनकी संख्या काफी घट चुकी है.
मेला का भविष्य
सोनपुर मेला, जो कभी एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला था, अब थियेटर मेला के रूप में जाना जाता है. वरिष्ठ पत्रकारों और स्थानीय निवासियों का मानना है कि यदि थियेटर को मेले से हटा दिया जाए, तो यह मेला कार्तिक पूर्णिमा के 4-5 दिनों के बाद समाप्त हो जाएगा. आज का सोनपुर मेला अपनी पारंपरिक पहचान को लगभग खो चुका है और मुख्य रूप से एक सांस्कृतिक एवं मनोरंजन का मंच बनकर रह गया है.
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FIRST PUBLISHED : December 2, 2024, 20:11 IST